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मानव जीवन ‘जन्म’ से नहीं बल्कि ‘मानवता’ से सार्थक होताः कुष्मिता भारती

देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा आयोजित साप्ताहिक सत्संग में प्रवचन करते हुए आशुतोष महाराज की शिष्या और देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी कुष्मिता भारती ने कहा कि मानव का जन्म मिलना ईश्वर की बड़ी कृपा है परन्तु मानवता को अंगीकार कर मनुष्य जीवन व्यतीत करना यह सर्वोच्च कृपा और मनुष्य का पुरूषार्थ दोनों है। आदमी और इंसान में बड़ा फर्क है। इंसानियत से परिपूर्ण हो समस्त मानवता के हितार्थ कर्म करना ईश्वर को अत्यन्त प्रिय है। जीवन का पथ सदैव एक जैसा कभी नहीं रहता। इंसान को अपने जीवन में अनेक पड़ाव पार करने होते हैं। विवेक के अभाव में अनेकों मुश्किलें खड़ी हो जाया करती हैं। उलझनों में उलझकर मनुष्य अपने जीवन की धारा को विपरीत दिशा में मोड़ दिया करता है।
दिशाहीन जीवन काल का ग्रास बन नष्ट हो जाया करता है। महापुरूष समझाते हैं कि अपने जीवनकाल को मानव जहां पर व्यतीत करता है उसे मृत्युलोक कहते हैं अर्थात मनुष्य का जीवन हर पल मृत्यु की ओर ही अग्रसर हो रहा है, एैसे में जीवनकाल को किस प्रकार जिया जाए कि जाने के समय संतोष हो, सुख हो, कुछ अच्छा किया, कुछ प्राप्त किया, इस भाव के साथ जीवन का समापन हो। मानवता को धारण कर जीवन को ईश्वर के सुपुर्द करना ही जीवन की सफलता हुआ करती है। शिक्षा को ही आज मानव ने सफलता का आधार समझ लिया है, शैक्षिक योग्यता से वह धन-सम्पदा, एैश्वर्य, मान-प्रतिष्ठा तो प्राप्त कर लेता है परन्तु संस्कार, चरित्र, मानवता और परोपकार इनके लिए तो शिक्षा के अतिरिक्त ‘दीक्षा’ की प्राप्ति भी अवश्यमभावी बताई गई है। शिक्षा सिखाने का नाम है और दीक्षा दिखाने का नाम है। दिखाना अर्थात मनुष्य को उसकी मनुष्यता का अवलोकन उसके हृदयस्थल में ही करवाने का नाम है। वास्तव में ईश्वर के साथ जुड़ जाने के उपरान्त ही, भगवान को अपने अर्न्तजगत में देख लेने के बाद ही दीक्षा चरितार्थ हुआ करती है। वर्तमान समय में मानवता का हृास सिर्फ इसी कारण है कि संसार को दीक्षा का भान ही नहीं है। यह दीक्षा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। पुरातन काल से ही गुरूकुल में शिष्यों को शिक्षा के साथ-साथ दीक्षा भी गुरूओं द्वारा प्रदान की जाती थी, तभी शिष्यों का जीवन परिपूर्ण होकर मानव कल्याण में सदैव रत रहा करता था। सद्गुरू प्रदत्त ‘ब्रह्म्ज्ञान’ प्रत्येक कालखण्ड में मानव समाज के भीतर दीक्षा का आगाज कर उन्हें मनुष्यता के समस्त गुणों से आच्छादित करता आया है। वर्तमान में भी पूर्ण गुरू की दीक्षा ब्रह्म्ज्ञान मनुष्य जगत को उत्थान की ओर लेकर अग्रसर है। साध्वी जाह्नवी भारती ने भजनों की सारगर्भित व्यख्या की। मंच का संचालन साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती के द्वारा किया गया। साध्वी ने भजनों की व्याख्या करते हुए कहा कि एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी से पूछा गया कि गोस्वामी जी मनुष्य का जीवन आम के वृक्ष के समान है अथवा बबूल के वृक्ष के समान? गोस्वामी जी ने उत्तर दिया कि अनमोल मानव जीवन न तो आम और न ही बबूल के वृक्ष की तरह है बल्कि सृष्टि के सिरमौर मनुष्य का जीवन तो एक कल्पवृक्ष के समान है। इस वृक्ष के नीचे मानव का जैसा चिंतन होगा, जैसी इच्छा होगी वैसा ही परिणाम भी सामने आएगा। माया की इच्छा होगी तो दुख, संताप ही प्राप्त होंगे और यदि मायापति (ईश्वर) की अभिलाषा होगी तो आनन्द ही आनन्द जीवन में छा जाएगा।

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